उपन्यास >> काहे री नलिनी काहे री नलिनीउषा यादव
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प्रस्तुत है पुस्तक काहे री नलिनी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपनी बात
देह व्यवसाय का फैसला बाजार आज एक विकराल वैश्विक समस्या का रूप धारण कर
चुका है। यों तो उम्र किसी भी पड़ाव पर औरत सुरक्षित नहीं है, पर जब मासूम
बचपन देह व्यवसाय के घिनौने सौदागरों के हाथ में पड़कर दम तोड़ता है तो
निस्संदेह परिदृश्य एक गंभीर चिंता का विषय बन जाता है।
‘ग्लोबल’ देह मंडी मे लड़कियों की सप्लाई के नाना तरीके हैं। गलियों में सजे ‘कोठा’ नामदारी पारंपरिक विक्रय-क्रेद्र तो हैं ही, मसाज पार्लर, ब्यूटी पार्लर, मॉडलिंग एजेंसी, फ्रेंडसिप क्लब, बार डांसर, सेक्स वर्कर जैसे नाम भी उन्हें गपकने के लिए घात लगाए बैठे हैं। बचपन को कत्ल करने की यह साजिश उत्तर आधुनिकतावादी युग में फलते-फूलते उस बाजार की देन है, जो ‘ग्लैमर’ की आड़ में विज्ञापन की रंगीन दुनिया से लेकर न जाने कितने धू-धूसरित कोनों में नाबालिक लड़कियों को धसकता-पटकता रहा है, अकाल काल-कवलित होने पर विवश करता रहा है। आँकड़े बताते हैं कि पूरी दुनिया में लगभग बीस लाख, बच्चियाँ हर साल अनैतिक देह व्यापार की शिकार होती हैं। यह व्यापार इस सीमा तक फल-फूल रहा है कि यूनीफेम के दक्षिण एशियाई कार्यालय की रिपोर्टर के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग सात अरब डॉलर इस व्यवसाय से अर्जित होता है।
पाँच सितारा होटल व पॉश कॉलोनियों में चमकती-दमकती युवा नारी देह की एक रात की कीमत पचास हजार से लेकर लाखों रुपए तक है, तो पुरानी तंग गलियों में औरत का शरीर कौड़ियों के मोल बिकता है। उस मामूली सी कमाई में भी दलाली लेने वालों की लंबी कतार है। दलाल, कोठामलकिन, पुलिस, भड़वे व सूदखोरों को पैसा देते देते इन अभागिनों के हाथ में इतना भी नहीं बचता कि दो वक्त भरपेट रोटी भी खा सकें।
यूनीसेफ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन से लेकर राष्ट्रीय स्तर की अनेक सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं ने इस त्रासदी को देखा, पहचाना और दूर करना चाहा है। पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। महिला व बाल विकास विभाग द्वारा किए गए एक ताजा राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 40 लाख वेश्याएँ हैं और इनमें से 35 प्रतिशत यानी 14 लाख नाबालिग लड़कियाँ हैं। यह अध्ययन वर्ष 2002 से 2004 की कालावधि का है तथा सभी राज्यों केंद्र शासित प्रदेशों में 9,500 वेश्याओं से बातचीत के आधार पर पूरा हुआ है। सच्चाई यह है कि आज प्रतिदिन एक घंटे में एक बच्ची शोषण का शिकार हो रही है और नाबालिग लड़कियों में अधिकांश की आयु 12 से 15 वर्ष है।
इस सर्वेक्षण के और भी कई चौकाने वाले परिणाम सामने आए हैं। देह व्यवसाय में धकेली गई लड़कियों में एक-चौथाई ऐसी हैं, जिन्हें उनके संबंधियों ने ही इस नीच धंधे में धकेला है। सगे मामा-मामी या मौसा-मौसी ही यदि चंद रुपयों के लोभ में किसी बच्ची को देह तस्करों के हाथों बेच दें तो मानवता क्यों न शर्मसार होगी ? यह भी द्रष्टव्य है कि कोठों की संख्या में भले ही आज वृद्धि न हो रही हो, पर वेश्यावृत्ति तेजी से बढ़ रही है।
एक अन्य चिंतनीय बात यह कि कि करीब 60 प्रतिशत वेश्याएँ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ी जाति की हैं। सामाजिक न्याय के मुँह पर एक बड़ा तमाचा यह है कि ज्यादातक इस यौन शोषण का शिकार एक दलित लड़की ही क्यों होती है ? समाज का कलंक कही जानेवाली दक्षिण भारत और महाराष्ट्र की देवदासी प्रथा में भी युग-युग तक यही होता रहा। जोगतिनियों (देवदासियों) के कलेजे के भीतर रिसते घावों की पीड़ा माँ के मंदिर में बहुधा इन शब्दों में फूट निकलती थी—‘तुम्हें महरों (हरिजनों) की ही कन्याएँ क्यों अच्छी लगती हैं, माँ ? तुम्हारा बुलावा ‘जट’, ‘मराठा ब्रह्मणों’ की लड़कियों के लिए क्यों नहीं आता ?’ इसका कारण वही एक शाश्वत सच था गरीबी। और आज भी आँकड़े यही बताते हैं कि वेश्यावृत्ति में संलिप्त युवतियाँ किन्हीं विशेष जातियों की ही होती हैं। कारण आज भी वही है—गरीबी।
देह शोषण की शिकार बच्चियों को व्यथा-कथा को बयान करना भी बड़ा कष्टप्रद है। लगता है, शाखा पर खिली किसी कली को नोचने का जो उपक्रम पहले एक बार ‘बाजार’ ने किया, उसी को दोबारा ‘कलम’ कर रही है। लेकिन अपने समय का सच बयान न करना भी तो लेखकीय दायित्वहीनता कहलाएगी। काहे री नलिनी तू मुरझानी इसी संवेदना से जुड़ा उपन्यास है। बाजार के बीच बिकते बचपन के दर्द की टीस आपकों इसमें मिलेगी और उसकी कसक गंभीर चिंतन के लिए प्रेरित करेगी, इसी उम्मीद के साथ !
‘ग्लोबल’ देह मंडी मे लड़कियों की सप्लाई के नाना तरीके हैं। गलियों में सजे ‘कोठा’ नामदारी पारंपरिक विक्रय-क्रेद्र तो हैं ही, मसाज पार्लर, ब्यूटी पार्लर, मॉडलिंग एजेंसी, फ्रेंडसिप क्लब, बार डांसर, सेक्स वर्कर जैसे नाम भी उन्हें गपकने के लिए घात लगाए बैठे हैं। बचपन को कत्ल करने की यह साजिश उत्तर आधुनिकतावादी युग में फलते-फूलते उस बाजार की देन है, जो ‘ग्लैमर’ की आड़ में विज्ञापन की रंगीन दुनिया से लेकर न जाने कितने धू-धूसरित कोनों में नाबालिक लड़कियों को धसकता-पटकता रहा है, अकाल काल-कवलित होने पर विवश करता रहा है। आँकड़े बताते हैं कि पूरी दुनिया में लगभग बीस लाख, बच्चियाँ हर साल अनैतिक देह व्यापार की शिकार होती हैं। यह व्यापार इस सीमा तक फल-फूल रहा है कि यूनीफेम के दक्षिण एशियाई कार्यालय की रिपोर्टर के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग सात अरब डॉलर इस व्यवसाय से अर्जित होता है।
पाँच सितारा होटल व पॉश कॉलोनियों में चमकती-दमकती युवा नारी देह की एक रात की कीमत पचास हजार से लेकर लाखों रुपए तक है, तो पुरानी तंग गलियों में औरत का शरीर कौड़ियों के मोल बिकता है। उस मामूली सी कमाई में भी दलाली लेने वालों की लंबी कतार है। दलाल, कोठामलकिन, पुलिस, भड़वे व सूदखोरों को पैसा देते देते इन अभागिनों के हाथ में इतना भी नहीं बचता कि दो वक्त भरपेट रोटी भी खा सकें।
यूनीसेफ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन से लेकर राष्ट्रीय स्तर की अनेक सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं ने इस त्रासदी को देखा, पहचाना और दूर करना चाहा है। पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। महिला व बाल विकास विभाग द्वारा किए गए एक ताजा राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 40 लाख वेश्याएँ हैं और इनमें से 35 प्रतिशत यानी 14 लाख नाबालिग लड़कियाँ हैं। यह अध्ययन वर्ष 2002 से 2004 की कालावधि का है तथा सभी राज्यों केंद्र शासित प्रदेशों में 9,500 वेश्याओं से बातचीत के आधार पर पूरा हुआ है। सच्चाई यह है कि आज प्रतिदिन एक घंटे में एक बच्ची शोषण का शिकार हो रही है और नाबालिग लड़कियों में अधिकांश की आयु 12 से 15 वर्ष है।
इस सर्वेक्षण के और भी कई चौकाने वाले परिणाम सामने आए हैं। देह व्यवसाय में धकेली गई लड़कियों में एक-चौथाई ऐसी हैं, जिन्हें उनके संबंधियों ने ही इस नीच धंधे में धकेला है। सगे मामा-मामी या मौसा-मौसी ही यदि चंद रुपयों के लोभ में किसी बच्ची को देह तस्करों के हाथों बेच दें तो मानवता क्यों न शर्मसार होगी ? यह भी द्रष्टव्य है कि कोठों की संख्या में भले ही आज वृद्धि न हो रही हो, पर वेश्यावृत्ति तेजी से बढ़ रही है।
एक अन्य चिंतनीय बात यह कि कि करीब 60 प्रतिशत वेश्याएँ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ी जाति की हैं। सामाजिक न्याय के मुँह पर एक बड़ा तमाचा यह है कि ज्यादातक इस यौन शोषण का शिकार एक दलित लड़की ही क्यों होती है ? समाज का कलंक कही जानेवाली दक्षिण भारत और महाराष्ट्र की देवदासी प्रथा में भी युग-युग तक यही होता रहा। जोगतिनियों (देवदासियों) के कलेजे के भीतर रिसते घावों की पीड़ा माँ के मंदिर में बहुधा इन शब्दों में फूट निकलती थी—‘तुम्हें महरों (हरिजनों) की ही कन्याएँ क्यों अच्छी लगती हैं, माँ ? तुम्हारा बुलावा ‘जट’, ‘मराठा ब्रह्मणों’ की लड़कियों के लिए क्यों नहीं आता ?’ इसका कारण वही एक शाश्वत सच था गरीबी। और आज भी आँकड़े यही बताते हैं कि वेश्यावृत्ति में संलिप्त युवतियाँ किन्हीं विशेष जातियों की ही होती हैं। कारण आज भी वही है—गरीबी।
देह शोषण की शिकार बच्चियों को व्यथा-कथा को बयान करना भी बड़ा कष्टप्रद है। लगता है, शाखा पर खिली किसी कली को नोचने का जो उपक्रम पहले एक बार ‘बाजार’ ने किया, उसी को दोबारा ‘कलम’ कर रही है। लेकिन अपने समय का सच बयान न करना भी तो लेखकीय दायित्वहीनता कहलाएगी। काहे री नलिनी तू मुरझानी इसी संवेदना से जुड़ा उपन्यास है। बाजार के बीच बिकते बचपन के दर्द की टीस आपकों इसमें मिलेगी और उसकी कसक गंभीर चिंतन के लिए प्रेरित करेगी, इसी उम्मीद के साथ !
उषा यादव
काहे री नलिनी
एक थी नलिनी
अभी शाम के सिर्फ सात बजे थे, पर कोहरे की मोटी चादर ने समूचे परिवेश को
अपनी गिरफ्त में ले लिया था।
सड़क पर रेंगती पुलिस की जीप शायद ड्राइवर के सधे के कमाल के कारण ही निर्विघ्न आगे बढ़ रही थी, वरना कुहरे के उस महासमुद्र में एक रास्ता खोजना आसान था क्या ?
अच्छे मौसम में इस रास्ते से बहुत बार निकली है नंदिता। जानती है, सड़क के दोनों ओर गहरी ढलान है। ढलान पर काफी संख्या में पेड़-पौधे हैं, जिनकी कतार सड़क के साथ लगातार दूर तक चली गई है।
पहले ढलान और फिर समतल।
समतल पर जगह-जगह गड्ढों में पानी भरा है।
इसके बाद दूर तक फैले हैं खेत-ही-खेत।
उसने फसल कट जाने पर खेतों का श्रीहत रूप देखा है और खड़ी फसल के दौरान हरियाली का सौंदर्य भी आँखो से पिया है।
पर इस वक्त सबकुछ कुहरे में गुम है। दृश्यता-बोध शून्य तक पहुंचा हुआ। ऐसे में ड्राइवर की तनिक सी असावधानी चींटी से रेंगती जीप को...। किंतु मन का उल्लास, उमंग और जोश क्या कभी खतरों से हारे हैं ?
नंदिता भी कुहरे की घनी चादर को चीरकर बढ़ती जीप को लेकर रोमांचित है। उसे तो यही लगता है कि कोई राजहंसिनी समुद्र की लहरों पर पूरी मदहोशी से तैर रही है।
नंदिता के अधरों पर एक मीठी मुस्कान नाच उठी। भले ही पुलिस की नौकरी में आई है वह, पर साहित्य का शौक बरकरार है। शायद इस नौकरी में
आती भी नहीं, अगर नलिनी मौसी का कुम्हलाया चेहरा जब-तब मानस में कौंधता न होता। उसी चेहरे की वजह से वह यू.पी.एस.सी. के बजाय आई.पी.एस. बनी।
अपने बैच की आई. पी.एस. टॉपर नंदिता से यह सवाल अकसर किया जाता है कि उसने पुलिस को अपनी पहली पसंद क्यों बनाया ?
जबाव देते वक्त उसकी आँखों में एक चमक लहक उठती है—‘अन्याय और शोषण के विरोध के लिए, गूँगों की आवाज बनने के लिए, खासकर दबी-कुचली औरतों के मूक दर्द को जुबान देने के लिए।’
और हमेशा ऐसे पलों में आँखों के सामने नलिनी मौसी का चेहरा समूर्त होते ही वह मन-ही-मन बुदबुदा उठती है—‘तुम्हें तो मैं देह व्यवसाय में धकेले जाने से नहीं बचा सकी, पर तुम्हारी जैसी हजारों लाखों मजबूर लड़कियों को जबरन दैहिक शोषण से जरूर बचाना चाहती हूँ। इस नौकरी में मेरे आने की वजह तुम हो, सिर्फ तुम।’
नंदिता को उस वक्त कितना कुछ याद हो आता है। नलिनी मौसी-यानी ननिहाल के लिए कोई बेगाना न था। सबके साथ उसके नाना-नानी, मौसा-मामा जैसे रिश्ते जुड़े थे। धोबिन, नाउन, भंगिन तक के लिए जब माँ का चाची, काकी, भाभी, बूआ आदि संबोधन सुनती, तो सबके साथ गहरा आत्मीय जुड़ाव कैसे न महसूस करती !
नलिनी भी ऐसे ही किसी मुहल्ले या दूर-पास के रिश्ते की रही होगी। चूँकि माँ को वह ‘जीजी’ कहती, इसलिए नन्ही नन्दिता उसे अनायास ‘मौसी’ कहकर पुकारने लगी और फिर नलिनी मौसी किसी सुवासित पवन के झकोरे की तरह उसकी समूची चेतना पर छा गईं।
सच, नलिनी मौसी बड़ी गुणवती थीं।
नीम या आम के पेड़ पर डाले गए झूले पर सुमधुर तराने सहित इतनी ऊँची पेंग लेती कि नंदिता मुग्ध नेत्रों से निहारती रह जाती। देर तक मन में रची-बसी रहती थीं सावन के मल्हार की वे पंक्तियाँ—‘अरी बहना, झूला तो झूलैं हरि राधिका...’
गुट्टे खेलते समय नलिनी मौसी के खटाखट चलते हाथों को भी वह आँखे फाड़े देखती रह जाती—‘कमाल है ! तू जादू जानती हो क्या नलिनी मौसी ?’
यही जादू तो खट्टे-मीठे आमों की पहचान में भी दिखाई दे जाता था।
आम के भरे झाबे में से छाँटकर जैसे ही वह कोई पीला, पका आम उठाती, अचानक नलिनी मौसी चिल्ला उठती—‘इसे रहने दे गुड़िया, यह खट्टा आम तू नहीं चूस सकेगी। ठहर, अभी एक मीठा आम तेरे लिए तलाशती हूँ।’
एकाध बार तो जिद में आकर उसी आम पर दाँत गड़ा दिए थे—‘यह आम खट्टा हो ही नहीं सकता।’
बाद में उसे चित्र-विचित्र मुँह बनाकर उस आम को खत्म करने की कोशिश करते देखकर नलिनी मौसी खिलखिला उठती—‘मजा मिल गया न ! मैंने मना किया था, मानी नहीं। सोचा होगा, तुझे रोककर मैं खुद इस स्वादिष्ट आम को खा लूँगी। रंग-रूप देखकर ललचा गई, पर हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती, लाडो !’
शाम के धुँधलके में देर तक किस्से-कहानियों का दौर चलता था। परियों और राजा-रानी की कहानियों तक छोटी-सी नंदिनी सोत्साह हुँकारी भरती, पर पीपल के भूत की भयावह कहानी शुरू होते हैं वह घिघिया उठती—‘नलिनी मौसी, मुझे बहुत डर लगता है। प्लीज, यह कहानी मत सुनाओ।’
और आगे झुककर उसका कोमल गाल चूमते हुए मौसी जैसे अभयदान दे देतीं—‘ठीक है, तू डरपोक बच्ची ठहरी ! परी की कहानी ही सुन।’
सच नलिनी मौसी क्या नहीं थी ?
सावन की पहली फुहार थी।
मलयागिरि की संदली बयार थी।
और...
और गाँव से बाहर बने शिव—मंदिर की घंटियों की मधुर झनकार थी।
लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि...
तब नंदिता मुश्किल से सात-आठ साल की रही होगी। ननिहाल आने पर उसे पहली बार नलिनी मौसी का कुम्हलाया चेहरा देखने को मिला।
झूला झूलने के नाम पर टाल-मटोल—‘गुडिया, तुम झूलो। मेरा मन नहीं है।’
गुट्टे खेलने के नाम पर भी अनमनापन—‘न बिट्टो, आज नहीं, फिर किसी दिन।’
और तो और, आंधी में टपके आमों को बटोरने के नाम पर भी बुझी हुई प्रतिक्रिया—‘छोड़ों, कौन जाए ! आम तो बहुतेरे टोकरे में धरे हैं।’
सड़क पर रेंगती पुलिस की जीप शायद ड्राइवर के सधे के कमाल के कारण ही निर्विघ्न आगे बढ़ रही थी, वरना कुहरे के उस महासमुद्र में एक रास्ता खोजना आसान था क्या ?
अच्छे मौसम में इस रास्ते से बहुत बार निकली है नंदिता। जानती है, सड़क के दोनों ओर गहरी ढलान है। ढलान पर काफी संख्या में पेड़-पौधे हैं, जिनकी कतार सड़क के साथ लगातार दूर तक चली गई है।
पहले ढलान और फिर समतल।
समतल पर जगह-जगह गड्ढों में पानी भरा है।
इसके बाद दूर तक फैले हैं खेत-ही-खेत।
उसने फसल कट जाने पर खेतों का श्रीहत रूप देखा है और खड़ी फसल के दौरान हरियाली का सौंदर्य भी आँखो से पिया है।
पर इस वक्त सबकुछ कुहरे में गुम है। दृश्यता-बोध शून्य तक पहुंचा हुआ। ऐसे में ड्राइवर की तनिक सी असावधानी चींटी से रेंगती जीप को...। किंतु मन का उल्लास, उमंग और जोश क्या कभी खतरों से हारे हैं ?
नंदिता भी कुहरे की घनी चादर को चीरकर बढ़ती जीप को लेकर रोमांचित है। उसे तो यही लगता है कि कोई राजहंसिनी समुद्र की लहरों पर पूरी मदहोशी से तैर रही है।
नंदिता के अधरों पर एक मीठी मुस्कान नाच उठी। भले ही पुलिस की नौकरी में आई है वह, पर साहित्य का शौक बरकरार है। शायद इस नौकरी में
आती भी नहीं, अगर नलिनी मौसी का कुम्हलाया चेहरा जब-तब मानस में कौंधता न होता। उसी चेहरे की वजह से वह यू.पी.एस.सी. के बजाय आई.पी.एस. बनी।
अपने बैच की आई. पी.एस. टॉपर नंदिता से यह सवाल अकसर किया जाता है कि उसने पुलिस को अपनी पहली पसंद क्यों बनाया ?
जबाव देते वक्त उसकी आँखों में एक चमक लहक उठती है—‘अन्याय और शोषण के विरोध के लिए, गूँगों की आवाज बनने के लिए, खासकर दबी-कुचली औरतों के मूक दर्द को जुबान देने के लिए।’
और हमेशा ऐसे पलों में आँखों के सामने नलिनी मौसी का चेहरा समूर्त होते ही वह मन-ही-मन बुदबुदा उठती है—‘तुम्हें तो मैं देह व्यवसाय में धकेले जाने से नहीं बचा सकी, पर तुम्हारी जैसी हजारों लाखों मजबूर लड़कियों को जबरन दैहिक शोषण से जरूर बचाना चाहती हूँ। इस नौकरी में मेरे आने की वजह तुम हो, सिर्फ तुम।’
नंदिता को उस वक्त कितना कुछ याद हो आता है। नलिनी मौसी-यानी ननिहाल के लिए कोई बेगाना न था। सबके साथ उसके नाना-नानी, मौसा-मामा जैसे रिश्ते जुड़े थे। धोबिन, नाउन, भंगिन तक के लिए जब माँ का चाची, काकी, भाभी, बूआ आदि संबोधन सुनती, तो सबके साथ गहरा आत्मीय जुड़ाव कैसे न महसूस करती !
नलिनी भी ऐसे ही किसी मुहल्ले या दूर-पास के रिश्ते की रही होगी। चूँकि माँ को वह ‘जीजी’ कहती, इसलिए नन्ही नन्दिता उसे अनायास ‘मौसी’ कहकर पुकारने लगी और फिर नलिनी मौसी किसी सुवासित पवन के झकोरे की तरह उसकी समूची चेतना पर छा गईं।
सच, नलिनी मौसी बड़ी गुणवती थीं।
नीम या आम के पेड़ पर डाले गए झूले पर सुमधुर तराने सहित इतनी ऊँची पेंग लेती कि नंदिता मुग्ध नेत्रों से निहारती रह जाती। देर तक मन में रची-बसी रहती थीं सावन के मल्हार की वे पंक्तियाँ—‘अरी बहना, झूला तो झूलैं हरि राधिका...’
गुट्टे खेलते समय नलिनी मौसी के खटाखट चलते हाथों को भी वह आँखे फाड़े देखती रह जाती—‘कमाल है ! तू जादू जानती हो क्या नलिनी मौसी ?’
यही जादू तो खट्टे-मीठे आमों की पहचान में भी दिखाई दे जाता था।
आम के भरे झाबे में से छाँटकर जैसे ही वह कोई पीला, पका आम उठाती, अचानक नलिनी मौसी चिल्ला उठती—‘इसे रहने दे गुड़िया, यह खट्टा आम तू नहीं चूस सकेगी। ठहर, अभी एक मीठा आम तेरे लिए तलाशती हूँ।’
एकाध बार तो जिद में आकर उसी आम पर दाँत गड़ा दिए थे—‘यह आम खट्टा हो ही नहीं सकता।’
बाद में उसे चित्र-विचित्र मुँह बनाकर उस आम को खत्म करने की कोशिश करते देखकर नलिनी मौसी खिलखिला उठती—‘मजा मिल गया न ! मैंने मना किया था, मानी नहीं। सोचा होगा, तुझे रोककर मैं खुद इस स्वादिष्ट आम को खा लूँगी। रंग-रूप देखकर ललचा गई, पर हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती, लाडो !’
शाम के धुँधलके में देर तक किस्से-कहानियों का दौर चलता था। परियों और राजा-रानी की कहानियों तक छोटी-सी नंदिनी सोत्साह हुँकारी भरती, पर पीपल के भूत की भयावह कहानी शुरू होते हैं वह घिघिया उठती—‘नलिनी मौसी, मुझे बहुत डर लगता है। प्लीज, यह कहानी मत सुनाओ।’
और आगे झुककर उसका कोमल गाल चूमते हुए मौसी जैसे अभयदान दे देतीं—‘ठीक है, तू डरपोक बच्ची ठहरी ! परी की कहानी ही सुन।’
सच नलिनी मौसी क्या नहीं थी ?
सावन की पहली फुहार थी।
मलयागिरि की संदली बयार थी।
और...
और गाँव से बाहर बने शिव—मंदिर की घंटियों की मधुर झनकार थी।
लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि...
तब नंदिता मुश्किल से सात-आठ साल की रही होगी। ननिहाल आने पर उसे पहली बार नलिनी मौसी का कुम्हलाया चेहरा देखने को मिला।
झूला झूलने के नाम पर टाल-मटोल—‘गुडिया, तुम झूलो। मेरा मन नहीं है।’
गुट्टे खेलने के नाम पर भी अनमनापन—‘न बिट्टो, आज नहीं, फिर किसी दिन।’
और तो और, आंधी में टपके आमों को बटोरने के नाम पर भी बुझी हुई प्रतिक्रिया—‘छोड़ों, कौन जाए ! आम तो बहुतेरे टोकरे में धरे हैं।’
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